Sunday, 14 April 2013

फेसबुक/ज़िन्दगी...


ज़िन्दगी
फेसबुक तो नहीं,
जहाँ हर पल अपनी मर्ज़ी से स्टेटस चुना जाये और
उसे सोचकर लिखे कोई...
दूर, ऊपर आसमानों वाला,
वहां बैठा सबकी पेज और प्रोफाइल पर नज़र रखे हुए है.
वही पेज को लाइक करता है,
और ज़िन्दगी बदल जाती है...
मैं भी अक्सर सोचता हूँ,
अगर ज़िन्दगी फेसबुक होती
जब मन करता बीते लम्हों को फिर से देख लेता
जी लेता उन्हें फिर से एक बार..
या
अगर कुछ ऐसा हो जाता
जो, नापसंद हो मुझे
मेरी पेज पर पेस्ट कर दिया गया हो,
तो उसे हाईड तो कर ही देता .
डर भी लगता है यह सोचकर कि क्या होता??
कभी
कोई रिश्ता

गर मुझे अनफ्रेंड कर देता तो..
हैरत होती है !!
कैसे लोग कमेंट बॉक्स में टाइप करने के,
बाद भी,

सच को एडिट कर देते हैं.

छुपा लेते हैं अपने ख्याल और जज़्बात.

न चाहते हुए भी
लोगों की बातों को लाइक
करते हैं
ताकि झूठे रिश्ते बने रहें...
अच्छा ही है,
ज़िन्दगी,
ज़िन्दगी ही है फेसबुक नहीं....   
                      चन्दन झा

Wednesday, 20 March 2013

पत्थर .....

पत्थर
कहते ही
मन में आती है कठोरता
और आता है खुरदरापन..
लेकिन कल शाम
नदी की पेटी में कुछ पत्थरों
को देखा....
वक़्त के साथ आती लहरों ने,
बदल दिया था उन्हें,
उनके खुरदरेपन को
चिकनेपन में..
तभी तो उन पत्थरों के पास
बच्चे खेल रहे थे
बना रहे थे घर और घरौंदे,
था वह उनके खुशियों का आशियाना,
उनकी मासूम हंसी का ठिकाना...
कल फिर लौटेंगे ये नन्हें-मुन्ने,
और लौटेगी खुशियाँ इनके साथ
इनके पास होंगे सपने नए,
अपने अपने घर को बेहतर
बनाने के लिए
उसे सजाने के लिए
इसी तरह  
दूर हो रहा था उन पत्थरों का
एकाकीपन..
कुछ
खुरदरे इंसानों से
भले हैं ना ये
पत्थर... 
क्योंकि
वे अपने आपको
बदल नहीं पाते हैं
और रह जाते हैं अकेले...
तभी तो मन में लिए शिकायतें,
अपने रूखेपन और खुरदरेपन के साथ...
अकेले ही चले जाते हैं....   
    
                       चन्दन झा